महाभारतम्-02-सभापर्व-097

विकिस्रोतः तः
← सभापर्व-096 महाभारतम्
द्वितीयपर्व
महाभारतम्-02-सभापर्व-097
वेदव्यासः
सभापर्व-098 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103

दुर्योधनेन धृतराष्ट्रसमीपे अर्जुनप्रभाववर्णनम्।। 1।। दुर्योधनदुर्बोधनेन धृतराष्ट्रस्य पुनर्द्यूताय पाण्डवानयनाभ्यनुज्ञा।। 2।।

दुर्योधन उवाच।। 2-97-1x
शृणु राजन्पुराऽचिन्त्यानर्जुनस्य च साहसान्।
अर्जुनो धन्विनां श्रेष्ठो दुष्करं कृतवान्पुरा।।
2-97-1a
2-97-1b
द्रुपदस्य पुरे राजन्द्रौपद्याश्च स्वयंवर।।
आबालवृद्धसङ्क्षोभे सर्वक्षत्रसमागमे।
क्षिप्रकारी जले मत्स्यं दुर्निरीक्ष्यं ससर्ज ह।।
2-97-2a
2-97-2b
2-97-2c
सर्वैर्नृपैरसाध्यं तत्कार्मुकप्रवरं च वै।
क्षणेन सज्यमकरोत्सर्वक्षत्रस्य पश्यतः।।
2-97-3a
2-97-3b
ततो यन्त्रमयं विध्वा विसारं फल्गुनो बली।
कृष्णया हेममाल्येन स्कन्धे स परिवेष्टितः।।
2-97-4a
2-97-4b
ततस्तया वृतं पार्थं दृष्ट्वा सर्वे नृपास्तदा।
रोषात्सर्वायुधान्गृह्य क्रुद्धा वीरा महौजसः।
वैकर्तनं पुरस्कृत्य सर्वे पार्थमुपाद्रवन्।।
2-97-5a
2-97-5b
2-97-5c
स सर्वान्पार्थिवान्दृष्ट्वा क्रुद्धान्पार्थो महाबलः।
वारयित्वा शरैस्तीक्ष्णैरजयत्तत्र स स्वयम्।।
2-97-6a
2-97-6b
जित्वा तु तान्महीपालान्सर्वान्कर्णपुरोगमान्।
लेभे कृष्णां शुभां पार्थो युध्वा वीर्यबलात्तदा।।
2-97-7a
2-97-7b
सर्वक्षत्रसमूहेषु अम्बां भीष्मो यथा पुरा।
ततः कदाचिद्बीभत्सुस्तीर्ययात्रां ययौ स्वयम्।।
2-97-8a
2-97-8b
अथोलूपीं शुभां तात नागराजसतां तदा।
नागेष्वाप वराग्र्येषु प्रार्थितोऽथ यथा तथा।।
2-97-9a
2-97-9b
ततो गोदावरीं कृष्णां कावेरीं चावगाहत।
तत्र पाण्ड्यं समासाद्य तस्य कन्यामवाप सः।।
2-97-10a
2-97-10b
लब्ध्वा जिष्णुर्मुदं तत्र ततो याम्यां दिशं ययौ।। 2-97-11a
स दक्षिणं समुद्रान्तं गत्वा चाप्सरसां च वै।
कुमारतीर्थमासाद्य मोक्षयामास चार्जुनः।।
2-97-12a
2-97-12b
ग्राहरूपाश्च ताः पञ्च अतिशौर्येण वै बलात्।
कन्यातीर्थं समभ्येत्य ततो द्वारवतीं ययौ।।।
2-97-13a
2-97-13b
तत्र कृष्णनिदेशात्स सुभद्रां प्राप्य फल्गुनः।
तामारोप्य रथोपस्थे प्रययौ स्वपुरीं प्रति।।
2-97-14a
2-97-14b
अथादाय गते पार्थे ते श्रुत्वा सर्वयादवाः।
तमभ्यधावन्त्सङ्क्रुद्धाः सिंहव्याघ्रगणा इव।।
2-97-15a
2-97-15b
प्रद्युम्नः कृतवर्मा च गदः सारणसात्यकी।
आहुकश्चैव साम्बश्च चारुदेष्णो विदूरथः।।
2-97-16a
2-97-16b
अन्ये च यादवाः सर्वे बलदेवपुरोगमाः।
एकमेव परे कृष्णं गजवाजिरथैर्युताः।।
2-97-17a
2-97-17b
अथासाद्य वने यान्तं परिवार्य धनञ्जयम्।
चक्रुर्युद्धं सुसङ्क्रुद्धा बहुकोट्यश्च यादवाः।।
2-97-18a
2-97-18b
एक एव तु पार्थस्तैर्युद्धं चक्रे सुदारुणम्।
तेन तेषां समं युद्धं मुहूर्तं प्रबभूव ह।।
2-97-19a
2-97-19b
ततः पार्थो रणे सर्वान्वारयित्वा शितैः शरैः।
बलाद्विजित्य राजेन्द्र वीरस्तान्सर्वयादवान्।
तां सुभद्रामथादाय शक्रप्रस्थं विवेश ह।।
2-97-20a
2-97-20b
2-97-20c
भूयः शृणु महाराज फल्गुनस्य च साहसम्।
ददौ स वह्नेर्बिभत्सुः प्रार्थितं खाण्डवं वनम्।।
2-97-21a
2-97-21b
लब्धमात्रे तु तेनाथ भगवान्हव्यवाहनः।
भक्षितुं खाण्डवं राजंस्तत्रस्थानुपचक्रमे।।
2-97-22a
2-97-22b
ततस्तं भक्षयन्तं वै सव्यसाची विभावसुम्।
रथा धन्वी शरान्गृह्य स कलापयुतः प्रभुः।
पालयामास राजेन्द्र स्ववीर्येण महाबलः।।
2-97-23a
2-97-23b
2-97-23c
ततः श्रुत्वा महेनद्रस्तु मेघांस्तान्सन्दिदेश ह।
तेनोक्ता मेघसङ्घास्ते ववर्षुरतिवृष्टिभिः।।
2-97-24a
2-97-24b
ततो मेघगाणान्पार्थः शरव्रातैः समान्ततः।
खगमैर्वारयामास तदाश्चर्यमिवाभवत्।।
2-97-25a
2-97-25b
वारितान्मेघसङ्घांश्च श्रुत्वा क्रुद्धः पुरन्दरः।
पाण्डरं गजमास्थाय सर्वदेवगणैर्वृतः।
ययौ पार्थेन संयोद्धुं रक्षार्थं खाण्डवस्य च।।
2-97-26a
2-97-26b
2-97-26c
रुद्राश्च मरुतश्चैव वसवश्चाश्विनौ तदा।
आदित्याश्चैव साध्याश्च निश्वेदेवाश्च भारत।
गन्धर्वाश्चैव सहिता अन्ये देवगणाश्च ये।।
2-97-27a
2-97-27b
2-97-27c
ते सर्वे शस्त्रसम्पन्ना दीप्यमानाः स्वतेजसा।
धनञ्जयं जिघांसन्तः प्रपेतुर्विबुधाधिपाः।।
2-97-28a
2-97-28b
युगान्ते यानि दृश्यन्ते निमित्तानि महान्त्यपि।
सर्वाणि तत्र दृश्यन्ते निमित्तानि महीपते।।
2-97-29a
2-97-29b
ततो देवगमाः सर्वे पार्थं समभिदुद्रुवुः।
असम्भ्रान्तस्तु तान्दृष्ट्वा स तां देवमयीं चमूम्।।
2-97-30a
2-97-30b
त्वरितः फल्गुनो गृह्य तीक्ष्णांस्तानाशुगांस्तदा।
इन्द्रं देवांश्च सम्प्रेक्ष्य तस्थौ काल इवात्यये।।
2-97-31a
2-97-31b
ततो देवगणाः सर्वे बीभत्सुं सपुरन्दराः।
अवाकिरञ्छरव्रातैर्मानुषं तं महीपते।।
2-97-32a
2-97-32b
ततः पार्थो महातेजा गाण्डिवं गृह्य सत्वरः।
वारयामास देवानां शरव्रातैः शरांस्तदा।।
2-97-33a
2-97-33b
पुनः क्रुद्धाः सुराः सर्वे मर्त्यं तं सुभहाबलाः।
नानाशस्त्रैर्ववर्षुस्तं सव्यसाची महीपते।।
2-97-34a
2-97-34b
तान्पार्थः शस्त्रवर्षान्वै विसृष्टान्विबुधैस्तदा।
द्विधा त्रिधा स चिच्छेद स एव निशितैः शरैः।।
2-97-35a
2-97-35b
पुनश्च पार्थः सङ्क्रुद्धो मण्डलीकृतकार्मुकः।
देवसङ्घाञ्छरैस्तीक्ष्णैरर्पयन्वै समन्ततः।।
2-97-36a
2-97-36b
ततो देवगणाः सर्वे युध्वा पार्थेन वै मुहुः।
रणे जेतुमशक्यं तं ज्ञात्वा ते भरतर्षभ।।
2-97-37a
2-97-37b
शान्तास्ते विबुधाः सर्वे पार्थबाणाभिपीडिताः।
सद्विपं वासवं त्यक्त्वा दुद्रुवुः सर्वतो दिशम्।।
2-97-38a
2-97-38b
प्राचीं रुद्राः सगन्धर्वा दक्षिणां मरुतो ययुः।
दिशं प्रतीचीं भीतास्ते वसवश्च तथाऽश्विनौ ।।
2-97-39a
2-97-39b
आदित्याश्चैव विश्वे च दुद्रुवुर्वा उदङ्मुखाः।
साध्याश्चोर्ध्वमुखा भीताश्चिन्तयन्तोऽस्य सायकान्।।
2-97-40a
2-97-40b
एवं सुरगणाः सर्वे प्राद्रवन्त्सर्वतो दिशम्।
मुहुर्मुहुः प्रेक्षमाणाः पार्थमेव सकार्मुकम्।।
2-97-41a
2-97-41b
विद्रुतान्देवसङ्घांस्तान्रणे दृष्ट्वा पुरन्दरः।
ततः क्रुद्धो महातेजाः पार्थं बाणैरवाकिरत्।।
2-97-42a
2-97-42b
पार्थोऽपि शक्रं विव्याथ मानुषो विबुधाधिपम्।। 2-97-43a
ततः सोऽश्ममयं वर्षं व्यसृजद्विबुधाधिपः।
तच्छरैरर्जुनो वर्षं प्रतिजाघ्नेऽत्यमर्षणः।।
2-97-44a
2-97-44b
अथ संवर्धयामास तद्वर्षं देवराडपि।
भूय एव महावीर्यं जिज्ञासुः सव्यसाचिनः।।
2-97-45a
2-97-45b
सोऽश्मवर्षं महावेगमिषुभिः पाण्डवोऽपि च।
विलयं गमयामास हर्षयन्पाकशासनम्।।
2-97-46a
2-97-46b
उपादाय तु पाणिभ्यामङ्गदं नाम पर्वतम्।
सद्रुमं व्यसृजच्छक्रो जिघांसुः श्वेतवाहनम्।।
2-97-47a
2-97-47b
ततोऽर्जुनो वेगवद्भिर्ज्वलमानैरजिह्यगैः।
बाणैर्विध्वंसयामास गिरिराजं सहस्रधा।।
2-97-48a
2-97-48b
शक्रं च पातयामास शरैः पार्थो महान्युधि।
ततः शक्रो महाराज रणे वीरं धनञ्जयम्।।
2-97-49a
2-97-49b
ज्ञात्वा जेतुमशक्यं तं तेजोबलसमन्वितम्।
परां प्रीति ययौ तत्र पुत्रशौर्येण वासवः।।
2-97-50a
2-97-50b
तदा तत्र न तस्यास्ति दिवि कश्चिन्महायशाः।
समर्थो निर्जये राजन्नपि साक्षात्प्रजापतिः।।
2-97-51a
2-97-51b
ततः पार्थः शरैर्हत्वा यक्षराक्षसपन्नगान्।
दीप्ते चाग्नौ महातेजाः पातयामास सन्ततम्।।
2-97-52a
2-97-52b
प्रतिषेधयितुं पार्थं न शेकुस्तत्र केचन।
दृष्ट्वा निवारितं शक्रं दिवि देवगणैः सह।।
2-97-53a
2-97-53b
यथा सुपर्णः सोमार्थं विबुधानजयत्पुरा।
तथा जित्वा सुरान्पार्थस्तर्पयामास पावकम्।।
2-97-54a
2-97-54b
ततोऽर्जुनः स्ववीर्येण तर्पयित्वा विभावसुम्।
रथं ध्वजं च सहयं दिव्यानस्त्रांश्च पाण्डवः।।
2-97-55a
2-97-55b
गाण्डीवं च धनुः श्रेष्ठं तूणी चाक्षयसायकौ।
एतान्यपि च बीभत्सुर्लेभे कीर्ति च भारत।।
2-97-56a
2-97-56b
भूयोऽपि शृणु राजेन्द्र पार्थो गत्वोत्तरां दिशम्।
विजित्य नववर्षांश्च सपुरांश्च सपर्वतान्।।
2-97-57a
2-97-57b
जम्बुद्वीपं वशे कृत्वा सर्वं तद्भरतर्षभ।
बलाज्जित्वा नृपान्सर्वान्करे चविनिवेश्य च।।
2-97-58a
2-97-58b
रत्नान्यादाय सर्वाणि गत्वा चैव पुनः पुरीम्।
ततो ज्येष्ठं महात्मानं धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं कारयामास भारत।।
2-97-59a
2-97-59b
2-97-59c
स तान्यन्यानि कर्माणि कृतवानर्जुनः पुरा।
अर्जुनेन समो वीर्ये त्रिषु लोकेषु न क्वचित्।।
2-97-60a
2-97-60b
देवदानवयक्षाश्च पिशाचोरगराक्षसाः।
भीष्मद्रोणादयः सर्वे कुरवश्च महारथाः।।
2-97-61a
2-97-61b
लोके सर्वनृपाश्चैव वीराश्चान्ये धनुर्धराः।
एते पार्थं रणे युक्ताः प्रतियोद्धुं न शक्नुयुः।।
2-97-62a
2-97-62b
अहं हि नित्यं कौरव्य फल्गुनं हृदि संस्थितम्।
अपश्यं चिन्तयित्वा तं समुद्विग्नोऽस्मि तद्भयात्।।
2-97-63a
2-97-63b
गृहे गृहे च पश्यामि तात पार्थमहं सदा।
शरगाण्डीवसंयुक्तं पाशहस्तमिवान्तकम्।।
2-97-64a
2-97-64b
अपि पार्थसहस्राणि भीतः पश्यामि भारत।
पार्थभूतमिदं सर्वं नगरं प्रतिभाति मे।।
2-97-65a
2-97-65b
पार्थमेव हि पश्यामि रहिते तात भारत।
दृष्ट्वा स्वप्नगतं पार्थमुद्धमामि विचेतनः।।
2-97-66a
2-97-66b
अकारादीनि नामानि अर्जुनग्रस्तचेतसः।
अश्वाक्षराम्बुजाश्चैव त्रासं सञ्जनयन्ति मे।।
2-97-67a
2-97-67b
नास्ति पार्थादृते तात परवीराद्भयं मम।
प्रह्लादं वा बलिं वापि हन्याद्धि विजयो रणे।।
2-97-68a
2-97-68b
तस्मात्तेन महाराज युद्धं नस्तात न क्षमम्।
अहं तस्य प्रभावज्ञो नित्यं दुःखं वहामि च।।
2-97-69a
2-97-69b
पुरा हि दण्डकारण्ये मारीचस्य यथा भयम्।
भवेद्रामे महावीर्ये तथा पार्थे भयं मम।।
2-97-70a
2-97-70b
धृतराष्ट्र उवाच।। 2-97-71x
जानाम्येव महद्वीयं जिष्णोरेतद्दुरासदम्।
एतद्वीरस्य पार्थस्य कार्षीस्त्वं तु विप्रियम्।।
2-97-71a
2-97-71b
द्यूतं वा शस्त्रयुद्धं वा दुवाक्यं वा कथञ्चन।
एतेष्वेवं कृते तस्य विग्रहश्चैव वो भवेत्।।
2-97-72a
2-97-72b
तस्मात्त्वं पुत्र पार्थेन नित्यं स्नेहेन वर्तय।
यश्च पार्थेन सम्बन्धो वर्तते चेन्नरो भुवि।।
2-97-73a
2-97-73b
तस्य नास्ति भयं किञ्चित्रिषु लोकेषु भारत।
तस्मात्त्वं जिष्णुना वत्स नित्यं स्नेहेन वर्तय।।
2-97-74a
2-97-74b
दुर्योधन उवाच।। 2-97-75x
द्यूते पार्थस्य कौरव्य मायया निकृतिः कृता।
तस्माद्वि नो जयस्तात अन्योपायेन नो भवेत्।।
2-97-75a
2-97-75b
धृतराष्ट्र उवाच।। 2-97-76x
उपायश्च न कर्तव्यः पाण्डवान्प्रति भारत।
पार्थान्प्रति पुरा वत्स बहूपायाः कृतास्त्वया।।
2-97-76a
2-97-76b
तानुपायान्हि कौन्तेया बहुशो व्यतिचक्रमुः।
तस्माद्वितं जीविताय नः कुलस्य जनस्य च।।
2-97-77a
2-97-77b
त्वं चिकीर्षसि चेद्वत्स समित्रः सहबान्धवः।
सभ्रातृकस्त्वं पार्थेन नित्यं स्नेहेन वर्तय।।
2-97-78a
2-97-78b
वैशम्पायन उवाच।। 2-97-79x
धृतराष्ट्रवचः श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्तदा।
चिन्तयित्वा मुहूर्तं तु विधिना चोदितोऽब्रवीत्'।।
2-97-79a
2-97-79b
पुनर्दीव्याम भद्रं ते वनवासाय पाण्डवैः।
एवमेतान्वशे कर्तुं शक्ष्यामः पुरुषर्षभ।।ष
2-97-80a
2-97-80b
ते वा द्वादश वर्षाणि वयं वा द्यूतनिर्जिताः।
प्रविशेम महारण्यमजिनैः प्रतिवासिताः।।
2-97-81a
2-97-81b
त्रयोदशं च स्वजनैरज्ञाताः परिवत्सरम्।
ज्ञाताश्च पुनरन्यानि वने वर्षाणि द्वादश।।
2-97-82a
2-97-82b
निवसेम वयं ते वा तथा द्यूतं प्रवर्तताम्।
अक्षानुप्त्वा पुनर्द्यूतमिदं कुर्वन्तु पाण्डवः।।
2-97-83a
2-97-83b
एतत्कृत्यतमं राजन्नस्माकं भरतर्षभ।
अयं हि शकुनिर्वेद सविद्यामक्षसम्पदम्।।
2-97-84a
2-97-84b
दृढमूलं वयं राज्ये मित्राणि परिगृह्य च।
सारवद्विपुलं सैन्यं सत्कृत्य च दुरासदम्।।
2-97-85a
2-97-85b
ते च त्रयोदशं वर्षं पारयिष्यन्ति चेद्व्रतम्।
जेष्यामस्तान्वयं राजत्रोचतां ते परन्तप।।
2-97-86a
2-97-86b
धृतराष्ट्र उवाच।। 2-97-87x
तूर्णं प्रत्यानयस्वैतान्कामं व्यध्वगतानपि।
आगच्छन्तु पुनर्द्यूतमिदं कुर्वन्तु पाण्डवः।।
2-97-87a
2-97-87b
वैशम्पायन उवाच।। 2-97-88x
ततो द्रोणः सोमदत्तो बाह्लीकश्चैव गौतमः।
विदुरो द्रोणपुत्रश्च वैश्यापुत्रश्च वीर्यवान्।।
2-97-88a
2-97-88b
भूरिश्रवाः शान्तनवो विकर्णश्च महारथः।
मा द्यूतमित्यभाषन्त शमोऽस्त्विति च सर्वशः।।
2-97-89a
2-97-89b
अकामानां च सर्वेषां सुहृदामर्थदर्शिनाम्।
अकरोत्पाण्डवाह्वानं धृतराष्ट्रः सुतप्रियः।।
2-97-90a
2-97-90b
अथाब्रवीन्महाराज धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्।
पुत्रहार्दाद्धर्मयुक्ता गान्धारी शोककर्शिता।।
2-97-91a
2-97-91b
जाते दुर्योधने क्षत्ता महामतिरभाषत।
नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसनः।।
2-97-92a
2-97-92b
व्यनदज्जातमात्रो हि गोमायुरिव भारत।
अन्तो नूनं कुलस्यास्य कुरवस्तन्निबोधत।।
2-97-93a
2-97-93b
मा निमज्जीः स्वदोषेण महाप्सु त्वं हि भारत।
मा बालानामशिष्टानामभिमंस्था मतिं प्रभो।।
2-97-94a
2-97-94b
मा कुलस्य क्षये घोरे कारणं त्वं भविष्यसि।
बद्धं सेतुं को नु भिन्द्याद्धमेच्छान्तं च पावकम्।।
2-97-95a
2-97-95b
शमे स्थितान्को नु पार्थान्कोपयेद्भरतर्षभ।
स्मरन्तं त्वामाजमीढं स्मारयिष्याम्यहं पुनः।।
2-97-96a
2-97-96b
शास्त्रं न शास्ति दुर्बुद्धिं श्रेयसे चेतराय च।
न वै वृद्धो बालमतिर्भवेद्राजन्कथञ्चन।।
2-97-97a
2-97-97b
त्वन्नेत्राः सन्तु ते पुत्रा मा त्वां दीर्णाः प्रहासिषुः।
तस्मादयं मद्वचनात्त्यज्यतां कुलपांसनः।।
2-97-98a
2-97-98b
तथा ते न कृतं राजन्पुत्रस्नेहान्नराधिप।
तस्य प्राप्तं फलं विद्धि कुलान्तकरणाय यत्।।
2-97-99a
2-97-99b
शमेन धर्मेण नयेन युक्ता
या ते बुद्धिः साऽस्तु ते मा प्रमादीः।
प्रध्वंसिनी क्रूरसमाहिता श्री-
र्मृदुप्रौढा गच्छति पुत्रपौत्रान्।।
2-97-100a
2-97-100b
2-97-100c
2-97-100d
अथाब्रवीन्महाराजो गान्धारीं धर्मदर्शिनीम्।
अन्तः कामं कुलस्यास्तु न शक्नोमि निवारितुम्।।
2-97-101a
2-97-101b
यथेच्छन्ति तथैवास्तु प्रत्यागच्छन्तु पाण्डवाः।
पुनर्द्यूतं च कुर्वन्तु मामकाः पाण्डवैः सह।।
2-97-102a
2-97-102b
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
अनुद्यूतपर्वणि सप्तनवतितमोऽध्यायः।।97।।

2-97-90 अकामानां द्यूतमनिच्छतां सताम्।।

2-97-98 त्वन्नेत्रास्त्वमेव नेता येषां ते त्वन्नेत्राः। दीर्णास्त्वत्तो भिन्नर्म यादाः।।

सभापर्व-096 पुटाग्रे अल्लिखितम्। सभापर्व-098
"https://sa.wikisource.org/w/index.php?title=महाभारतम्-02-सभापर्व-097&oldid=50608" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्