पृष्ठम्:विक्रमाङ्कदेवचरितम् (भागः १).pdf/३५८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति

( ३४९ )

भाषा

शोक मनाने के बादद्रविडदेश के राज्य में विप्लव होने की खबर सुन कर, दु ख्रिन हो, वह विक्रमाङ्कदेव, कुळीन चोलराजा वीर राजेन्द्र के अधिराज राजेन्द्र नामक पुत्र को राजगद्दी पर बैठाने के लिये चल पडा ।

करशितचिकीर्णकर्णतालव्यजनसमीरणशीतलीकृतानि ।
यथ धरणिभुजां पिबन्यशांसि क्षितिपतिरादिपुरीमवाप काशीम् ॥१०||

अन्वयः

 अथ क्षितिपतिः करटिशतविकीर्णकर्णतालण्यंजनसमीरणशीतलीकृतानि धरणिभुक्षां यशांसि पिबन् आदिपुरी काीम् अवाप ।

व्याखा

 अय दोलदेशप्रति प्रस्थानत्र क्षितिपतिः पथि धिष्ठता करटिन गजाना जातं तेन विकीर्णानि विक्षिप्तानि कण एव तलाः तालवृक्षपर्णानि तान्येव व्यजनानि तालवृन्तानि तेषां समीरणेन पवनेन शीतलीकृतानि, अशीतलानि शतलनि कृतातीति मतलीकृतानि ‘व्विः प्रत्ययः । विपक्षनृपाणा प्रतापशनि तोप्माण निधायं हिमीकृतानि धरणिभुवा पृथ्धीपालानां यशासि कतः दुग्घमिध पिबन् क्षादिपुरौ प्रथमनगरीं च तन्नामचोलराजधानमवाप संप्राप्तः । यशसः श्यंत्य प्रसिद्धमिहि दुग्धपता व्यज्यते, एवं शशृभूयानां यशोदुग्यं पिबन्निव तत्राऽऽजगामेति भावः ।

भाषा

चोलदेव के प्रति प्रस्थान करने के अनन्तर, संकडो हाथियो के हिलाए झुए कात रूपी ताल पत्र के पख़ो से उत्पन्न वायु से ठण्डे किए हुए विपक्ष राजाओं के यशों या पान करते हुए यह पूर्व का सरक्षक विक्रमादेव प्राचीन नगरी कान्वी में पहुंच गया । अर्थात् हाथी की सेना से शत्रुओ को परास्त कर उनकी प्रताप को गर्मी शपन्त होने से उनका शीतल दुर्घ के समान यश, अपने पश्चिम से लगी प्यास को मिटाने के लिए, पान करता हुआ काञ्ची नगरी में पहुंचा ।