लिङ्गपुराणम् - पूर्वभागः/अध्यायः ९३

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ऋषय ऊचुः।।
अंधको नाम दैत्येंद्रो मंदरे चारुकंदरे।।
दमितस्तु कथं लेभे गाणपत्यं महेश्वरात्।। ९३.१ ।।

वक्तुमर्हसि चास्माकं यथावृत्तं यथाश्रुतम्।।
सूत उवाच।।
अंदकानुग्रहं चैव मंदरे शोषणं तथा।। ९३.२ ।।

वरलाभमशेषं च प्रवदामि समासतः।।
हिरण्याक्षस्य तनयो हिरण्यनयनोपमः।। ९३.३ ।।

पुरांधक इति ख्यातस्तपसा लब्धविक्रमः।।
प्रसादाद्‌ब्रह्मणः साक्षादवध्यत्वमवाप्य च।। ९३.४ ।।

त्रैलोक्यमखिलं भुक्त्वा जित्वा चेंद्रपुरं पुरा।।
लीलया चाप्रयत्नेन त्रासयामास वासवम्।। ९३.५ ।।

बाधितास्ताडिता बद्धाः पातितास्तेन ते सुराः।।
विविशुर्मंदरं भीता नारायणपुरोगमाः।। ९३.६ ।।

एवं संपीड्य वै देवानंधकोपि महासुरः।।
यदृच्छया गिरिंप्राप्तो मंदरं चारुकंदरम्।। ९३.७ ।।

ततस्ते समास्ताः सुरेंद्राः ससाध्याः सुरेश महेशं पुरेत्याहुरेवम्।।
द्रुतं चाल्पवीर्यप्रभिन्नांगभिन्ना वयं दैत्यराजस्य शस्त्रैर्निकृत्ताः।। ९३.८ ।।

इतीदमखिलं श्रुत्वा दैत्यागममनौपमम्।।
गणेश्वरैश्च भगवानंधकाभिमुखं ययौ।। ९३.९ ।।

तत्रेंद्रपद्मोद्भव विष्णुमुख्याः सुरेश्वरा विप्रवराश्च सर्वे।।
जयेति वाचा भगवंतमूचूः किरीटबद्धांजलयः समंतात्।। ९३.१० ।।

अथाशेषासुरांस्तस्य कोटिकोटिसतैस्ततः।।
भस्मीकृत्य महादेवो निर्बिभेदांधकं तदा।। ९३.११ ।।

शूलेन शूलिना प्रोतं दग्धकल्पमषकंचुकम्।।
दृष्ट्वांधकं ननादेशं प्रणम्य स पितामहः।। ९३.१२ ।।

तन्नादश्रवणान्नेदुर्देवा देवं प्रणम्य तम्।।
ननृतुर्मुनयः सर्वे मुमुदुर्गणपुंगवाः।। ९३.१३ ।।

ससृजुः पुष्पवर्षाणि देवाः शंभोस्तदोपरि।।
त्रैलोक्यमखिलं हर्षान्ननंद च ननाद च।। ९३.१४ ।।

दग्धोग्निना च शूलेन प्रोतः प्रेत इवांधकः।।
सात्त्विकं भावमास्थाय चिंतयामास चेतसा।। ९३.१५ ।।

जन्मांतरेपि देवेन दग्धो यस्माच्छिवेन वै।।
आराधितो मया शंभुः पुरा साक्षान्महेश्वरः।। ९३.१६ ।।

तस्मादेतन्मया लब्धमन्यथा नोपपद्यते।।
यः स्मरेन्मनसा रुद्रं प्राणांते सकृदेव वा।। ९३.१७ ।।

स याति शिवसायुज्यं किं पुनर्बहुशः स्मरन्।।
ब्रह्मा च भगवान्विष्णुः सर्वे देवाः सवासवाः।। ९३.१८ ।।

शरणं प्राप्य तिष्ठंति तमेव शरणं व्रजेत्।।
एवं संचिंत्य तुष्टात्मा सोंधकश्चांधकार्दनम्।। ९३.१९ ।।

सगणं शिवमीशानमस्तुवत्पुण्यगौरवात्।।
प्रार्थितस्तेन भगवान् परमार्तिहरो हरः।। ९३.२० ।।

हिरण्यनेत्रतनयं शूलाग्रस्थं सुरेश्वरः।।
प्रोवाच दानवं प्रेक्ष्य घृणया नीललोहितः।। ९३.२१ ।।

तुष्टोस्मि वत्स भद्रं ते कामं किं करवाणि ते।।
वरान्वरय दैत्येंद्र वरदोहं तवांधक।। ९३.२२ ।।

श्रुत्वा वाक्यं तदा शंभोर्हिरण्यनयनात्मजः।।
हर्षगद्गदया वाचा प्रोवाचेदं महेश्वरम्।। ९३.२३ ।।

भगवन्देवदेवेश भक्तार्तिहर शंकर।।
त्वयि भक्तिः प्रसीदेश यदि देयो वरश्च मे।। ९३.२४ ।।

श्रुत्वा भवोपि वचनमंधकस्य महात्मनः।।
प्रददौ दुर्लभां श्रद्धां दैत्येंद्राय महाद्युतिः।। ९३.२५ ।।

गाणपत्यं च दैत्याय प्रददौ चावरोप्यतम्।।
प्रणेमुस्तं सुरेंद्राद्या गाणपत्ये प्रतिष्ठितम्।। ९३.२६ ।।

इति श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वेभागे अंधकगाणपत्यात्मको नाम त्रिनवतितमोध्यायः।। ९३ ।।