सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-101

विकिस्रोतः तः
← अनुशासनपर्व-100 महाभारतम्
त्रतयोदशपर्व
महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-101
वेदव्यासः
अनुशासनपर्व-102 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
  119. 119
  120. 120
  121. 121
  122. 122
  123. 123
  124. 124
  125. 125
  126. 126
  127. 127
  128. 128
  129. 129
  130. 130
  131. 131
  132. 132
  133. 133
  134. 134
  135. 135
  136. 136
  137. 137
  138. 138
  139. 139
  140. 140
  141. 141
  142. 142
  143. 143
  144. 144
  145. 145
  146. 146
  147. 147
  148. 148
  149. 149
  150. 150
  151. 151
  152. 152
  153. 153
  154. 154
  155. 155
  156. 156
  157. 157
  158. 158
  159. 159
  160. 160
  161. 161
  162. 162
  163. 163
  164. 164
  165. 165
  166. 166
  167. 167
  168. 168
  169. 169
  170. 170
  171. 171
  172. 172
  173. 173
  174. 174
  175. 175
  176. 176
  177. 177
  178. 178
  179. 179
  180. 180
  181. 181
  182. 182
  183. 183
  184. 184
  185. 185
  186. 186
  187. 187
  188. 188
  189. 189
  190. 190
  191. 191
  192. 192
  193. 193
  194. 194
  195. 195
  196. 196
  197. 197
  198. 198
  199. 199
  200. 200
  201. 201
  202. 202
  203. 203
  204. 204
  205. 205
  206. 206
  207. 207
  208. 208
  209. 209
  210. 210
  211. 211
  212. 212
  213. 213
  214. 214
  215. 215
  216. 216
  217. 217
  218. 218
  219. 219
  220. 220
  221. 221
  222. 222
  223. 223
  224. 224
  225. 225
  226. 226
  227. 227
  228. 228
  229. 229
  230. 230
  231. 231
  232. 232
  233. 233
  234. 234
  235. 235
  236. 236
  237. 237
  238. 238
  239. 239
  240. 240
  241. 241
  242. 242
  243. 243
  244. 244
  245. 245
  246. 246
  247. 247
  248. 248
  249. 249
  250. 250
  251. 251
  252. 252
  253. 253
  254. 254
  255. 255
  256. 256
  257. 257
  258. 258
  259. 259
  260. 260
  261. 261
  262. 262
  263. 263
  264. 264
  265. 265
  266. 266
  267. 267
  268. 268
  269. 269
  270. 270
  271. 271
  272. 272
  273. 273
  274. 274
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
  119. 119
  120. 120
  121. 121
  122. 122
  123. 123
  124. 124
  125. 125
  126. 126
  127. 127
  128. 128
  129. 129
  130. 130
  131. 131
  132. 132
  133. 133
  134. 134
  135. 135
  136. 136
  137. 137
  138. 138
  139. 139
  140. 140
  141. 141
  142. 142
  143. 143
  144. 144
  145. 145
  146. 146
  147. 147
  148. 148
  149. 149
  150. 150
  151. 151
  152. 152
  153. 153
  154. 154
  155. 155
  156. 156
  157. 157
  158. 158
  159. 159
  160. 160
  161. 161
  162. 162
  163. 163
  164. 164
  165. 165
  166. 166
  167. 167
  168. 168
  169. 169
  170. 170
  171. 171
  172. 172
  173. 173
  174. 174
  175. 175
  176. 176
  177. 177
  178. 178
  179. 179
  180. 180
  181. 181
  182. 182
  183. 183
  184. 184
  185. 185
  186. 186
  187. 187
  188. 188
  189. 189
  190. 190
  191. 191
  192. 192
  193. 193
  194. 194
  195. 195
  196. 196
  197. 197
  198. 198
  199. 199
  200. 200
  201. 201
  202. 202
  203. 203
  204. 204
  205. 205
  206. 206
  207. 207
  208. 208
  209. 209
  210. 210
  211. 211
  212. 212
  213. 213
  214. 214
  215. 215
  216. 216
  217. 217
  218. 218
  219. 219
  220. 220
  221. 221
  222. 222
  223. 223
  224. 224
  225. 225
  226. 226
  227. 227
  228. 228
  229. 229
  230. 230
  231. 231
  232. 232
  233. 233
  234. 234
  235. 235
  236. 236
  237. 237
  238. 238
  239. 239
  240. 240
  241. 241
  242. 242
  243. 243
  244. 244
  245. 245
  246. 246
  247. 247
  248. 248
  249. 249
  250. 250
  251. 251
  252. 252
  253. 253
  254. 254
  255. 255
  256. 256
  257. 257
  258. 258
  259. 259
  260. 260
  261. 261
  262. 262
  263. 263
  264. 264
  265. 265
  266. 266
  267. 267
  268. 268
  269. 269
  270. 270
  271. 271
  272. 272
  273. 273
  274. 274

भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति जलतिलभूम्यन्नगोदानादिफलकथनम्। 1 ।।

युधिष्ठिर उवाच। 13-101-1x
दह्यमानाय विप्राय यः प्रयच्छत्युपानहौ।
यत्फलं तस्य भवति तन्मे ब्रूहि पितामह।।
13-101-1a
13-101-1b
भीष्म उवाच। 13-101-2x
उपानहौ प्रयच्छेद्यो ब्राह्मणेभ्यः समाहितः।
मर्दते कण्टकान्सर्वान्विषमान्निस्तरत्यपि।।
13-101-2a
13-101-2b
स शत्रूणामुपरि च सन्तिष्ठति युधिष्ठिर।
यानं चाश्वतरीयुक्तं तस्य शुभ्रं विशाम्पते।।
13-101-3a
13-101-3b
उपतिष्ठति कौन्तेय रौप्यकाञ्चनभूषितम्।
शकटं दम्यसंयुक्तं दत्तं भवति चैव हि।।
13-101-4a
13-101-4b
युधिष्ठिर उवाच। 13-101-5x
यत्फलं तिलदाने च भूमिदाने च कीर्तितम्।
गोदाने चान्नदाने च भूयस्तद्ब्रूहि कौरव।।
13-101-5a
13-101-5b
भीष्म उवाच। 13-101-6x
शृणुष्व मम कौन्तैय तिलदानस्य यत्फलम्।
निशम्य च यथान्यायं प्रयच्छ कुरुसत्तम।।
13-101-6a
13-101-6b
पितॄणां प्रथमं भोज्यं तिलाः सृष्टाः स्वयंभुवा।
तिलदानेन वै तस्मात्पितृपक्षः प्रमोदते।।
13-101-7a
13-101-7b
माघमासे तिलान्यस्तु ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति।
सर्वसत्वसमाकीर्णं नरकं स न पश्यति।।
13-101-8a
13-101-8b
सर्वसत्रैश्च यजते यस्तिलैर्यजते पितॄन्।
न चाकामेन दातव्यं तिलैः श्राद्धं कदाचन।।
13-101-9a
13-101-9b
महर्षेः कश्यपस्यैते गात्रेभ्यः प्रसृतास्तिलाः।
ततो दिव्यं गता भावं प्रदानेषु तिलाः प्रभो
13-101-10a
13-101-10b
पौष्टिका रूपदाश्चैव तथा पापविनाशनाः।
तस्मात्सर्वप्रदानेभ्यस्तिलदानं विशिष्यते।।
13-101-11a
13-101-11b
आपस्तम्बश्च मेधावी शङ्खश्च लिखितस्तथा।
महर्षिर्गौतमश्चापि तिलदानैर्दिवं गताः।।
13-101-12a
13-101-12b
तिलहोमरता विप्राः सर्वे संयतमैथुनाः।
समा गव्येन हविषा प्रवृत्तिषु च संस्थिताः।।
13-101-13a
13-101-13b
सर्वेषामिति दानानां तिलदानं विशिष्यते।
अक्षयं सर्वदानानां तिलदानमिहोच्यते।।
13-101-14a
13-101-14b
उच्छिन्ने तु पुरा हव्ये कुशिकर्षिः परन्तपः।
तिलैरग्नित्रयं हुत्वा प्राप्तवान्गतिमुत्तमाम्।।
13-101-15a
13-101-15b
इति प्रोक्तं कुरुश्रेष्ठ तिलदानमनुत्तमम्।
विधानं येन विधिना तिलानामिह शस्यते।।
13-101-16a
13-101-16b
अत ऊर्ध्वं निबोधेदं देवानां यष्टुमिच्छताम्।
समागमे महाराज ब्रह्मणा वै स्वयंभुवा।।
13-101-17a
13-101-17b
देवाः समेत्य ब्रह्माणं भूमिभागे यियश्रवः।
शुभं देशमयाचन्त यजेम इति पार्थिव।।
13-101-18a
13-101-18b
देवा ऊचुः। 13-101-19x
भगवंस्त्वं प्रभुर्भूमेः सर्वस्य त्रिदिवस्य च।
यजेम हि महाभाग यज्ञं भवदनुज्ञया।।
13-101-19a
13-101-19b
नाननुज्ञातभूमिर्हि यज्ञस्य फलमश्नुते।
त्वं हि सर्वस्य जगतः स्थावरस्य चरस्य च।
प्रभुर्भवसि तस्मात्त्वं समनुज्ञातुमर्हसि।।
13-101-20a
13-101-20b
13-101-20c
ब्रह्मोवाच। 13-101-21x
ददानि मेदिनीभागं भवद्भ्योऽहं सुरर्षभाः।
यस्मिन्देशे करिष्यध्वं यज्ञान्काश्यपनन्दनाः।।
13-101-21a
13-101-21b
दैवा ऊचुः। 13-101-22x
भगवन्कृतकामाः स्म यक्ष्महे स्वाप्तदक्षिणैः।
इमं तु देशं मुनयः पर्युपासन्ति नित्यदा।।
13-101-22a
13-101-22b
ततोऽगस्त्यश्च कण्वश्च भृगुरत्रिर्वृषाकपिः।
असितो देवलश्चैव देवयज्ञमुपागमन्।।
13-101-23a
13-101-23b
ततो देवा महात्मान ईजिरे यज्ञमच्युतम्।
तथा समापयामासुर्यथाकालं सुरर्षभाः।।
13-101-24a
13-101-24b
त इष्टयज्ञास्त्रिदशा हिमवत्यचलोत्तमे।
षष्ठमंशं क्रतोस्तस्य भूमिदानं प्रचक्रिरे।
13-101-25a
13-101-25b
प्रादेशमात्रं भूमेस्तु यो दद्यादनुपस्कृतम्।
न सीदति स कृच्छ्रेषु न च दुर्गाण्यवाप्नुते।।
13-101-26a
13-101-26b
शीतवातातपसहां यागभूमिं सुसंस्कृताम्।
प्रदाय सुरलोकस्थः पुण्यान्तेऽपि न चाल्यते।।
13-101-27a
13-101-27b
मुदितो वसति प्राज्ञः शक्रेण सह पार्थिव।
पतिश्रयप्रदानाच्च सोऽपि स्वर्गे महीयते।।
13-101-28a
13-101-28b
अध्यापककुले जातः श्रोत्रियो नियतेन्द्रियः।
गृहे यस्य वसेत्तुष्टः प्रधानं लोकमश्नुते।।
13-101-29a
13-101-29b
तथा गवार्थे शरणं शीतवर्षसहं दृढम्।
आसप्तमं तारयति कुलं भरतसत्तम।।
13-101-30a
13-101-30b
क्षेत्रभूमिं ददल्लोके शुभां श्रियमवाप्नुयात्।
रत्नभूमिं प्रदद्यात्तु कुलवंशं प्रवर्धयेत्।।
13-101-31a
13-101-31b
न चोषरां न निर्दग्धां महीं दद्यात्कथञ्चन।
न श्मशानपरीतां च न च पापनिषेविताम्।।
13-101-32a
13-101-32b
पारक्ये भूमिदेशे तु पितॄणां निर्वपेत्तु यः।
तद्भूमिं वाऽपि पितृभिः श्राद्धकर्म विहन्यते।।
13-101-33a
13-101-33b
तस्मात्क्रीत्वा महीं दद्यात्स्वल्पामपि विचक्षणः।
पिण्डः पितृभ्यो दत्तो वै तस्यां भवति शाश्वतः।।
13-101-34a
13-101-34b
अटवी पर्वताश्चैव नद्यस्तीर्थानि यानि च।
सर्वाण्यस्वामिकान्याद्दुर्न हि तत्र परिग्रहः।।
13-101-35a
13-101-35b
इत्येतद्भूमिदानस्य फलमुक्तं विशाम्पते।
अतः परं तु गोदानं कीर्तयिष्यामि तेऽनघ।।
13-101-36a
13-101-36b
गावोऽधिकास्तपस्विभ्यो यस्मात्सर्वेभ्य एव च।
तस्मान्महेश्वरो देवस्तपस्ताभिः सहास्थितः।।
13-101-37a
13-101-37b
ब्राह्मे लोके वसन्त्येताः सोमेन सह भारत।
यां तां ब्रह्मर्षयः सिद्धाः प्रार्थयन्ति परां गतिम्।।
13-101-38a
13-101-38b
पयसा हविषा दध्ना शकृता चाथ चर्मणा।
अस्थिभिश्चोपकुर्वन्ति शृङ्गैर्वालैश्च भारत।।
13-101-39a
13-101-39b
नासां शीतातपौ स्यातां सदैताः कर्म कुर्वते।
न वर्षविषयं वाऽपि दुःखमासां भवत्युत।।
13-101-40a
13-101-40b
ब्राह्मणैः सहिता यान्ति तस्मात्पारमकं पदम्।
एकं गोब्राह्मणं तस्मात्प्रवदन्ति मनीषिणः।।
13-101-41a
13-101-41b
रन्तिदेवस्य यज्ञे ताः पशुत्वेनोपकल्पिताः।
अतश्चर्मण्वती राजन्गोचर्मभ्यः प्रवर्तिता।
पशुत्वाच्च विनिर्मुक्ताः प्रदानायोपकल्पिताः।।
13-101-42a
13-101-42b
13-101-42b
ता इमा विप्रमुख्येभ्यो यो ददाति महीपते।
निस्तरेदापदं कृच्छ्रां विषमस्थोऽपि पार्थिव।।
13-101-43a
13-101-43b
गवां सहस्रदः प्रेत्य नरकं न प्रपद्यते।
सर्वत्र विजयं चापि लभते मनुजाधिप।।
13-101-44a
13-101-44b
अमृतं वै गवां क्षीरमित्याह त्रिदशाधिपः।
तस्माद्ददाति यो धेनुममृतं स प्रयच्छति।।
13-101-45a
13-101-45b
अग्नीनामव्ययं ह्येतद्धौम्यं वेदविदो विदुः।
तस्माद्ददाति यो धेनुं स हौम्यं सम्प्रयच्छति।।
13-101-46a
13-101-46b
स्वर्गो वै मूर्तिमानेष वृषभं यो गवां पतिम्।
विप्रे गुणयुते दद्यात्स वै स्वर्गे महीयते।।
13-101-47a
13-101-47b
प्राणा वै प्राणिनामेते प्रोच्यन्ते भरतर्षभ।
तस्माद्ददाति यो धेनुं प्राणानेष प्रयच्छति।।
13-101-48a
13-101-48b
गावः शरण्या भूतानामिति वेदविदो विदुः।
तस्माद्ददाति यो धेनुं शरणं सम्प्रयच्छति।।
13-101-49a
13-101-49b
न वधार्थं प्रदातव्या न कीनाशे न नास्तिके।
गोजीविने न दातव्या तथा गौर्भरतर्षभ।
`गोरसानां न विक्रेतू रसं च यजनस्य च।।'
13-101-50a
13-101-50b
13-101-50c
ददत्स तादृशानां वै नरो गां पापकर्मणाम्।
अक्षयं नरकं यातीत्येवमाहुर्महर्षयः।।
13-101-51a
13-101-51b
न कृशां नापवत्सां वा वन्ध्यां रोगान्वितां तथा।
न व्यङ्गां न परिश्रान्तां दद्याद्गां ब्राह्मणाय वै।।
13-101-52a
13-101-52b
दशगोसहस्रदः सम्यक् शक्रेण सह मोदते।
अक्षयाँल्लभते लोकान्नरः शतसहस्रशः।।
13-101-53a
13-101-53b
इत्येतद्गोप्रदानं च तिलदानं च कीर्तितम्।
तथा भूमिप्रदानं च शृणुष्वान्ने च भारत।।
13-101-54a
13-101-54b
अन्नदानं प्रधानं हि कौन्तेय परिचक्षते।
अन्नस्य हि प्रदानेन रन्तिदेवो दिवं गतः।।
13-101-55a
13-101-55b
श्रान्ताय क्षुधितायान्नं यः प्रयच्छति भूमिप।
स्वायंभुवं महात्स्थानं स गच्छति नराधिप।।
13-101-56a
13-101-56b
न हिरण्यैर्न वासोभिर्नान्यदानेन भारत।
प्राप्नुवन्ति नराः श्रेयो यथा ह्यन्नप्रदाः प्रभो।।
13-101-57a
13-101-57b
अन्नं वै प्रथमं द्रव्यमन्नं श्रीश्च परा मता।
अन्नात्प्राणः प्रभवति तेजो वीर्यं बलं तथा।।
13-101-58a
13-101-58b
सद्यो ददाति यश्चान्नं सदैकाग्रमना नरः।
न स दुर्गाण्यवाप्नोतीत्येवमाह पराशरः।।
13-101-59a
13-101-59b
अर्चयित्वा यथान्यायं देवेभ्योऽन्नं निवेदयेत्।
यदन्ना हि नरा राजंस्तदन्नास्तस्य देवतः।।
13-101-60a
13-101-60b
कौमुद्यां शुक्लपक्षे तु योऽन्नदानं करोत्युत।
स सन्तरति दुर्गाणि प्रेत्य चानन्त्यमश्नुते।।
13-101-61a
13-101-61b
अभुक्त्वाऽतिथेये चान्नं प्रयच्छेद्यः समाहितः।
स वै ब्रह्मविदां लोकान्प्राप्नुयाद्भरतर्षभ।।
13-101-62a
13-101-62b
सुकृच्छ्रामापदं प्राप्तश्चान्नदः पुरुषस्तरेत्।
पापं तरति चैवेह दुष्कृतं चापकर्षति।।
13-101-63a
13-101-63b
इत्येतदन्नदानस्य तिलदानस्य चैव ह।
भूमिदानस्य च फलं गोदानस्य च कीर्तितम्।।
13-101-64a
13-101-64b
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि एकाधिकशततमोऽध्यायः।। 101 ।।

13-101-7 वै पुण्यं पितृलोके महीयते इति ध.पाठः।। 13-101-9 सर्वकामैश्च जयति यस्तिलैरिति नच कामेन दातव्यमिति च ध.पाठः।। 13-101-22 इमं हिमवत्सन्निहितम्।। 13-101-27 प्रतिश्रयो वासार्थं स्थलम्।। 13-101-33 तद्भूमिं परकीयां भूमिं वा यो निर्वपेत् पितृभिः पितृभ्यो दद्यात्तर्हि तच्छ्राद्धं तद्भूमिदानाख्यं कर्म चोभयं विहन्यते वृथा भवति।। 13-101-34 तस्यां क्रीतायाम्।। 13-101-46 आकुञ्चितमपि ह्येतद्धव्यं वेदविदो विदुरिति ध.पाठः।। 13-101-56 स्वयंभुवं महाभागं स पश्यति नराधिपेति ध.पाठः।। 13-101-58 अन्नं वै परमं दैवमिति ध.पाठः।।


तिलादिदानफलम्
 
युधिष्ठिर उवाच॥

दह्यमानाय विप्राय यः प्रयच्छत्युपानहौ |
यत्फलं तस्य भवति तन्मे ब्रूहि पितामह ॥१॥

भीष्म उवाच॥

उपानहौ प्रयच्छेद्यो ब्राह्मणेभ्यः समाहितः |
मर्दते कण्टकान्सर्वान्विषमान्निस्तरत्यपि ॥२॥

स शत्रूणामुपरि च सन्तिष्ठति युधिष्ठिर ॥२॥

यानं चाश्वतरीयुक्तं तस्य शुभ्रं विशां पते |
उपतिष्ठति कौन्तेय रूप्यकाञ्चनभूषणम् ॥३॥

शकटं दम्यसंयुक्तं दत्तं भवति चैव हि ॥३॥

युधिष्ठिर उवाच॥

यत्फलं तिलदाने च भूमिदाने च कीर्तितम् |
गोप्रदानेऽन्नदाने च भूयस्तद्ब्रूहि कौरव ॥४॥

भीष्म उवाच॥

शृणुष्व मम कौन्तेय तिलदानस्य यत्फलम् |
निशम्य च यथान्यायं प्रयच्छ कुरुसत्तम ॥५॥

पितॄणां प्रथमं भोज्यं तिलाः सृष्टाः स्वयम्भुवा |
तिलदानेन वै तस्मात्पितृपक्षः प्रमोदते ॥६॥

माघमासे तिलान्यस्तु ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति |
सर्वसत्त्वसमाकीर्णं नरकं स न पश्यति ॥७॥

सर्वकामैः स यजते यस्तिलैर्यजते पितॄन् |
न चाकामेन दातव्यं तिलश्राद्धं कथञ्चन ॥८॥

महर्षेः कश्यपस्यैते गात्रेभ्यः प्रसृतास्तिलाः |
ततो दिव्यं गता भावं प्रदानेषु तिलाः प्रभो ॥९॥

पौष्टिका रूपदाश्चैव तथा पापविनाशनाः |
तस्मात्सर्वप्रदानेभ्यस्तिलदानं विशिष्यते ॥१०॥

आपस्तम्बश्च मेधावी शङ्खश्च लिखितस्तथा |
महर्षिर्गौतमश्चापि तिलदानैर्दिवं गताः ॥११॥

तिलहोमपरा विप्राः सर्वे संयतमैथुनाः |
समा गव्येन हविषा प्रवृत्तिषु च संस्थिताः ॥१२॥

सर्वेषामेव दानानां तिलदानं परं स्मृतम् |
अक्षयं सर्वदानानां तिलदानमिहोच्यते ॥१३॥

उत्पन्ने च पुरा हव्ये कुशिकर्षिः परन्तप |
तिलैरग्नित्रयं हुत्वा प्राप्तवान्गतिमुत्तमाम् ॥१४॥

इति प्रोक्तं कुरुश्रेष्ठ तिलदानमनुत्तमम् |
विधानं येन विधिना तिलानामिह शस्यते ॥१५॥

अत ऊर्ध्वं निबोधेदं देवानां यष्टुमिच्छताम् |
समागमं महाराज ब्रह्मणा वै स्वयम्भुवा ॥१६॥

देवाः समेत्य ब्रह्माणं भूमिभागं यियक्षवः |
शुभं देशमयाचन्त यजेम इति पार्थिव ॥१७॥

देवा ऊचुः॥

भगवंस्त्वं प्रभुर्भूमेः सर्वस्य त्रिदिवस्य च |
यजेमहि महाभाग यज्ञं भवदनुज्ञया ॥१८॥

नाननुज्ञातभूमिर्हि यज्ञस्य फलमश्नुते ॥१८॥

त्वं हि सर्वस्य जगतः स्थावरस्य चरस्य च |
प्रभुर्भवसि तस्मात्त्वं समनुज्ञातुमर्हसि ॥१९॥

ब्रह्मोवाच॥

ददामि मेदिनीभागं भवद्भ्योऽहं सुरर्षभाः |
यस्मिन्देशे करिष्यध्वं यज्ञं काश्यपनन्दनाः ॥२०॥

देवा ऊचुः॥

भगवन्कृतकामाः स्मो यक्ष्यामस्त्वाप्तदक्षिणैः |
इमं तु देशं मुनयः पर्युपासन्त नित्यदा ॥२१॥

भीष्म उवाच॥

ततोऽगस्त्यश्च कण्वश्च भृगुरत्रिर्वृषाकपिः |
असितो देवलश्चैव देवयज्ञमुपागमन् ॥२२॥

ततो देवा महात्मान ईजिरे यज्ञमच्युत |
तथा समापयामासुर्यथाकालं सुरर्षभाः ॥२३॥

त इष्टयज्ञास्त्रिदशा हिमवत्यचलोत्तमे |
षष्ठमंशं क्रतोस्तस्य भूमिदानं प्रचक्रिरे ॥२४॥

प्रादेशमात्रं भूमेस्तु यो दद्यादनुपस्कृतम् |
न सीदति स कृच्छ्रेषु न च दुर्गाण्यवाप्नुते ॥२५॥

शीतवातातपसहां गृहभूमिं सुसंस्कृताम् |
प्रदाय सुरलोकस्थः पुण्यान्तेऽपि न चाल्यते ॥२६॥

मुदितो वसते प्राज्ञः शक्रेण सह पार्थिव |
प्रतिश्रयप्रदाता च सोऽपि स्वर्गे महीयते ॥२७॥

अध्यापककुले जातः श्रोत्रियो नियतेन्द्रियः |
गृहे यस्य वसेत्तुष्टः प्रधानं लोकमश्नुते ॥२८॥

तथा गवार्थे शरणं शीतवर्षसहं महत् |
आसप्तमं तारयति कुलं भरतसत्तम ॥२९॥

क्षेत्रभूमिं ददल्लोके पुत्र श्रियमवाप्नुयात् |
रत्नभूमिं प्रदत्त्वा तु कुलवंशं विवर्धयेत् ॥३०॥

न चोषरां न निर्दग्धां महीं दद्यात्कथञ्चन |
न श्मशानपरीतां च न च पापनिषेविताम् ॥३१॥

पारक्ये भूमिदेशे तु पितॄणां निर्वपेत्तु यः |
तद्भूमिस्वामिपितृभिः श्राद्धकर्म विहन्यते ॥३२॥

तस्मात्क्रीत्वा महीं दद्यात्स्वल्पामपि विचक्षणः |
पिण्डः पितृभ्यो दत्तो वै तस्यां भवति शाश्वतः ॥३३॥

अटवीपर्वताश्चैव नदीतीर्थानि यानि च |
सर्वाण्यस्वामिकान्याहुर्न हि तत्र परिग्रहः ॥३४॥

इत्येतद्भूमिदानस्य फलमुक्तं विशां पते |
अतः परं तु गोदानं कीर्तयिष्यामि तेऽनघ ॥३५॥

गावोऽधिकास्तपस्विभ्यो यस्मात्सर्वेभ्य एव च |
तस्मान्महेश्वरो देवस्तपस्ताभिः समास्थितः ॥३६॥

ब्रह्मलोके वसन्त्येताः सोमेन सह भारत |
आसां ब्रह्मर्षयः सिद्धाः प्रार्थयन्ति परां गतिम् ॥३७॥

पयसा हविषा दध्ना शकृताप्यथ चर्मणा |
अस्थिभिश्चोपकुर्वन्ति शृङ्गैर्वालैश्च भारत ॥३८॥

नासां शीतातपौ स्यातां सदैताः कर्म कुर्वते |
न वर्षं विषमं वापि दुःखमासां भवत्युत ॥३९॥

ब्राह्मणैः सहिता यान्ति तस्मात्परतरं पदम् |
एकं गोब्राह्मणं तस्मात्प्रवदन्ति मनीषिणः ॥४०॥

रन्तिदेवस्य यज्ञे ताः पशुत्वेनोपकल्पिताः |
ततश्चर्मण्वती राजन्गोचर्मभ्यः प्रवर्तिता ॥४१॥

पशुत्वाच्च विनिर्मुक्ताः प्रदानायोपकल्पिताः |
ता इमा विप्रमुख्येभ्यो यो ददाति महीपते ॥४२॥

निस्तरेदापदं कृच्छ्रां विषमस्थोऽपि पार्थिव ॥४२॥

गवां सहस्रदः प्रेत्य नरकं न प्रपश्यति |
सर्वत्र विजयं चापि लभते मनुजाधिप ॥४३॥

अमृतं वै गवां क्षीरमित्याह त्रिदशाधिपः |
तस्माद्ददाति यो धेनुममृतं स प्रयच्छति ॥४४॥

अग्नीनामव्ययं ह्येतद्धौम्यं वेदविदो विदुः |
तस्माद्ददाति यो धेनुं स हौम्यं सम्प्रयच्छति ॥४५॥

स्वर्गो वै मूर्तिमानेष वृषभं यो गवां पतिम् |
विप्रे गुणयुते दद्यात्स वै स्वर्गे महीयते ॥४६॥

प्राणा वै प्राणिनामेते प्रोच्यन्ते भरतर्षभ |
तस्माद्ददाति यो धेनुं प्राणान्वै स प्रयच्छति ॥४७॥

गावः शरण्या भूतानामिति वेदविदो विदुः |
तस्माद्ददाति यो धेनुं शरणं सम्प्रयच्छति ॥४८॥

न वधार्थं प्रदातव्या न कीनाशे न नास्तिके |
गोजीविने न दातव्या तथा गौः पुरुषर्षभ ॥४९॥

ददाति तादृशानां वै नरो गाः पापकर्मणाम् |
अक्षयं नरकं यातीत्येवमाहुर्मनीषिणः ॥५०॥

न कृशां पापवत्सां वा वन्ध्यां रोगान्वितां तथा |
न व्यङ्गां न परिश्रान्तां दद्याद्गां ब्राह्मणाय वै ॥५१॥

दशगोसहस्रदः सम्यक्षक्रेण सह मोदते |
अक्षयाँल्लभते लोकान्नरः शतसहस्रदः ॥५२॥

इत्येतद्गोप्रदानं च तिलदानं च कीर्तितम् |
तथा भूमिप्रदानं च शृणुष्वान्ने च भारत ॥५३॥

अन्नदानं प्रधानं हि कौन्तेय परिचक्षते |
अन्नस्य हि प्रदानेन रन्तिदेवो दिवं गतः ॥५४॥

श्रान्ताय क्षुधितायान्नं यः प्रयच्छति भूमिप |
स्वायम्भुवं महाभागं स पश्यति नराधिप ॥५५॥

न हिरण्यैर्न वासोभिर्नाश्वदानेन भारत |
प्राप्नुवन्ति नराः श्रेयो यथेहान्नप्रदाः प्रभो ॥५६॥

अन्नं वै परमं द्रव्यमन्नं श्रीश्च परा मता |
अन्नात्प्राणः प्रभवति तेजो वीर्यं बलं तथा ॥५७॥

सद्भ्यो ददाति यश्चान्नं सदैकाग्रमना नरः |
न स दुर्गाण्यवाप्नोतीत्येवमाह पराशरः ॥५८॥

अर्चयित्वा यथान्यायं देवेभ्योऽन्नं निवेदयेत् |
यदन्नो हि नरो राजंस्तदन्नास्तस्य देवताः ॥५९॥

कौमुद्यां शुक्लपक्षे तु योऽन्नदानं करोत्युत |
स सन्तरति दुर्गाणि प्रेत्य चानन्त्यमश्नुते ॥६०॥

अभुक्त्वातिथये चान्नं प्रयच्छेद्यः समाहितः |
स वै ब्रह्मविदां लोकान्प्राप्नुयाद्भरतर्षभ ॥६१॥

सुकृच्छ्रामापदं प्राप्तश्चान्नदः पुरुषस्तरेत् |
पापं तरति चैवेह दुष्कृतं चापकर्षति ॥६२॥

इत्येतदन्नदानस्य तिलदानस्य चैव ह |
भूमिदानस्य च फलं गोदानस्य च कीर्तितम् ॥६३॥

अनुशासनपर्व-100 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-102