बालकाण्ड ६

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फलकम्:Ramayana

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी ।
बड़ी बार लगि रहे निहारी ॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने ।
हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने ॥
जो एहि बरइ अमर सोइ होई ।
समरभूमि तेहि जीत न कोई ॥
सेवहिं सकल चराचर ताही ।
बरइ सीलनिधि कन्या जाही ॥
लच्छन सब बिचारि उर राखे ।
कछुक बनाइ भूप सन भाषे ॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं ।
नारद चले सोच मन माहीं ॥
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी ।
जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी ॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला ।
हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ॥
दो॰ एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल ।
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥१३१॥
हरि सन मागौं सुंदरताई ।
होइहि जात गहरु अति भाई ॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ ।
एहि अवसर सहाय सोइ होऊ ॥
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला ।
प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला ॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने ।
होइहि काजु हिएँ हरषाने ॥
अति आरति कहि कथा सुनाई ।
करहु कृपा करि होहु सहाई ॥
आपन रूप देहु प्रभु मोही ।
आन भाँति नहिं पावौं ओही ॥
जेहि बिधि होइ नाथ हित मोरा ।
करहु सो बेगि दास मैं तोरा ॥
निज माया बल देखि बिसाला ।
हियँ हँसि बोले दीनदयाला ॥
दो॰ जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार ।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥१३२॥
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी ।
बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ ।
कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ ॥
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा ।
समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा ॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई ।
जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई ॥
निज निज आसन बैठे राजा ।
बहु बनाव करि सहित समाजा ॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें ।
मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें ॥
मुनि हित कारन कृपानिधाना ।
दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना ॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा ।
नारद जानि सबहिं सिर नावा ॥
दो॰ रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ ॥१३३॥
जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई ।
हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई ॥
तहँ बैठ महेस गन दोऊ ।
बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ ॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई ।
नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई ॥
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी ।
इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ ।
हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी ।
समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी ॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा ।
सो सरूप नृपकन्याँ देखा ॥
मर्कट बदन भयंकर देही ।
देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ॥
दो॰ सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल ।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल ॥१३४॥
जेहि दिसि बैठे नारद फूली ।
सो दिसि देहि न बिलोकी भूली ॥
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं ।
देखि दसा हर गन मुसकाहीं ॥
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला ।
कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा ।
नृपसमाज सब भयउ निरासा ॥
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी ।
मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी ॥
तब हर गन बोले मुसुकाई ।
निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी ।
बदन दीख मुनि बारि निहारी ॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा ।
तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा ॥
दो॰ होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ ॥१३५॥
पुनि जल दीख रूप निज पावा ।
तदपि हृदयँ संतोष न आवा ॥
फरकत अधर कोप मन माहीं ।
सपदी चले कमलापति पाहीं ॥
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई ।
जगत मोर उपहास कराई ॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी ।
संग रमा सोइ राजकुमारी ॥
बोले मधुर बचन सुरसाईं ।
मुनि कहँ चले बिकल की नाईं ॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा ।
माया बस न रहा मन बोधा ॥
पर संपदा सकहु नहिं देखी ।
तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी ॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु ।
सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु ॥
दो॰ असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु ।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥१३६॥
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई ।
भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई ॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू ।
बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू ॥
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू ।
अति असंक मन सदा उछाहू ॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा ।
अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा ॥
भले भवन अब बायन दीन्हा ।
पावहुगे फल आपन कीन्हा ॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा ।
सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा ॥
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी ।
करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी ।
नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥
दो॰ श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि ।
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि ॥१३७॥
जब हरि माया दूरि निवारी ।
नहिं तहँ रमा न राजकुमारी ॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना ।
गहे पाहि प्रनतारति हरना ॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला ।
मम इच्छा कह दीनदयाला ॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे ।
कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे ॥
जपहु जाइ संकर सत नामा ।
होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा ॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें ।
असि परतीति तजहु जनि भोरें ॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी ।
सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई ।
अब न तुम्हहि माया निअराई ॥
दो॰ बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान ॥
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥१३८॥
हर गन मुनिहि जात पथ देखी ।
बिगतमोह मन हरष बिसेषी ॥
अति सभीत नारद पहिं आए ।
गहि पद आरत बचन सुनाए ॥
हर गन हम न बिप्र मुनिराया ।
बड़ अपराध कीन्ह फल पाया ॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला ।
बोले नारद दीनदयाला ॥
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ ।
बैभव बिपुल तेज बल होऊ ॥
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ ।
धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ ।
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा ।
होइहहु मुकुत न पुनि संसारा ॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई ।
भए निसाचर कालहि पाई ॥
दो॰ एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार ।
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार ॥१३९॥
एहि बिधि जनम करम हरि केरे ।
सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे ॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं ।
चारु चरित नानाबिधि करहीं ॥
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई ।
परम पुनीत प्रबंध बनाई ॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने ।
करहिं न सुनि आचरजु सयाने ॥
हरि अनंत हरिकथा अनंता ।
कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ॥
रामचंद्र के चरित सुहाए ।
कलप कोटि लगि जाहिं न गाए ॥
यह प्रसंग मैं कहा भवानी ।
हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी ॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी ॥
सेवत सुलभ सकल दुख हारी ॥
सो॰ सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ॥
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥
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